सुबह से ही आसमान पर बादल
छाए हुए थे। गहरे, काले.. शायद अभी भी सुबह ही थी। समय का पता कहां चल पा रहा था। कुछ
मौसम ही ऐसा था, या शायद माहौल।
चलते- चलते पीछे मुड़कर नहीं
देखा था। कितने कोस, करता पता। ना, थकान नहीं थी। ज़रा भी नहीं।
लेकिन एक उम्मीद थी, उमीद
उसे मिलने की, इतने सालों के बाद जो जा रहा था उसके शहर, क्या वो पहचानेगी उसे, शादी
तो नहीं हो गयी उसकी, अगर हो गयी भी तो क्या, प्यार थोड़ा कम हुआ होगा मुझसे, कितनी
सुंदर थी वो, वो माथे पर छोटी बिंदिया, कान में झूमके, वो लम्बे वाले, बोलती तो झूम
के हिलते मानो प्यार में हो, तीखे नैन नक़्श, वो भूरी आँखें, कहते हैं भूरी आँखों वाले
कमीने होते हैं, लेकिन वो नहीं थी ऐसी, देखते ही प्यार हो जाए
ऐसी थी माया...
हां, माया, बस नाम की ही माया।
खुली किताब थी वो। जो सोचे, वोही ज़बान पर। किसी का डर नहीं, न मोह। प्यार शब्द से
दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। मगर, उससे प्यार हो जाए, तो कोई करता करे।
ऐसा नहीं था के उसे प्यार
पसंद नहीं था, डरती थी लेकिन , अकेले रहने का डर, बचपन से ही उसने जिस चीज़ से मोह
लगाया, वो उससे छिन गयी, फिर वो उसकी फ़ेवरेट बार्बी गुड़िया हो या फिर उसका छोटा सा
चूड़ीदार सूट, छोटी बहन ने ही सही, लेकिन उससे लेकर उसे दे दिया जाता था, बहुत प्यार
करती थी अपनी बहन को लेकिन कहीं ना कहीं एक जलन थी के क्यूँ मिलता है उसे ज़्यादा प्यार,
लेकिन अब वो नौकरी करने लगी थी, कमाने लगी थी, एक टीस थी उसके मन में...
और उस रोज़ जब उसने माया का
हाथ अपने हाथों में लेकर उसे अपनी धड़कनों से वाकिफ़ कराया, कितनी ज़ोर से झटक दिया
गया था उसका हाथ। झनझना गया था वह। क्या कमी थी? इतनी पुरानी पहचान। सुबह का सूरज साथ
ही देखा किया था अकसर, और शाम की लाली की तारीफ़ साथ करते ना थकते थे। आवाज़ से हाल
समझ लिया करते थे, शक्ल तक तो पहुंचना ज़रूरी ही न था।
तब मोबाइल तो थे नहीं, सुबह
सुबह माया की आवाज़ सुनने के लिए पागलों की तरह उसके घर के आस पास चक्कर लगाया करता
था, काश वो खिड़की से देख ले, और फिर ये इशारा करे के कहाँ मिलना है, और मिल के घंटो
बातें, थोड़ी छेड़छाड़, कुछ कुछ प्यार , कुछ ऐसी बातें जो शायद यहाँ कही ना जा सकें
अभी, लेकिन आज माया ने हाथ क्यूँ झटका, क्या कोई और आ गया था उसकी ज़िंदगी में, क्या
वो दोस्ती से ज़्यादा जिसका कोई नाम नहीं होता वो रिश्ता ख़त्म हो गया था? कहीं माया
परेशान तो नहीं थी किसी बात से, यही सोचते सोचते उसने अपने क़दमों की गति बढ़ा दी...
उसकी खुली किताब सी माया..
झूठ बोलना कभी ना आया था, तभी तो इतनी ताकत से झटका था उसका हाथ कि कुछ भी ना बोलना
पड़े। सनसनाहट तो उसके हाथ ने भी महसूस की थी। माया ने अपना चेहरा घुमा लिया था, एक
उंगली से चले जाने का इशारा किया। वह नहीं रुका फिर, हट गया और कदम पीछे कर लिए। यह
देखने भी नहीं रुका कि आंखों के किनारे हौले से पोंछ रही थी माया...
पता था उसे के अगर वो रुका
तो माया रो देगी, और वो माया को रोते वो नहीं देख सकता था, पर वो गया नहीं, कुछ दूर
जा के खड़ा हो गया, कई बार ज़िंदगी में ऐसव मौक़े आते हैं जब दो लोग चाहते हैं के कोई
बात ना करे पर साथ में ज़रूर बैठा रहे, एक साथ, एक भरोसा, कभी कभी दो लोगों के बीच
ख़ामोशी भी अच्छी होती है, बात करने का दबाव नहीं...
माया चुप थी, वो भी चुप था
दूर खड़ा...
माया उसके पास गयी और कहा....
"तुमने पूछा भी नहीं
कुछ? बस मैंने कहा और तुम चल दिए?" "तुम पर पूरा भरोसा है, तुमने कहा तो
ज़रूर कोई बात होगी", उसने आराम से कहा। "तुम हर बार जीत जाते हो",
शिकायत थी माया के लहज़े में।
"अदालत तेरी, मुकदमा
तेरा, जज तुम, फ़रियादी तुम्हीं", बड़े प्यार से वो बोला।
"और भी जहां है मेरे
आगे", माया रूंधे गले से बस यही कह सकी।
"मेरा जहां ही तुम हो
माया!", सोचा बस, कहां नहीं उसने, क्यूंकि माया ने कहा था तो ज़रूर कोई बात होगी।
उसने माया को नज़र भर देखने को अपनी नज़र उठाई। माया हामी में सिर हिला रही थी, सुन
लिया था उसने।
फिर अचानक से माया हसने लगी,
बिन रुके, ज़ोर ज़ोर से, कबीर सकपका गया, क्या हुआ इसे, ऐसे क्यूँ हंस रही हो, उसने
पूछा, माया हँसे जा रही थी, कबीर को कुछ नहीं सूझ रहा था, वो माया को देखे जा रहा था,
कुछ हो तो नहीं गया था उसे.
“माया, हुआ क्या, अचानक से,
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है”
माया अचानक चुप हो गयी.
कुछ पल के बाद उसने कहा,
“अगर मैं कहूँ के मेरे पति
को हमारे इस रिश्ते के बारे में पता चल गया है तो?”, माया ने कहा.
“लेकिन कैसे?”, कबीर ने पूछा.
"कैसे......" इससे
कहां कोई फ़र्क पड़ता था। कबीर को कभी किसी चीज़ से फ़र्क नहीं पड़ा। अपने नाम की ही
तरह उल्टी गंगा बहती उसकी। कोई ज़रूरी बात ज़रूरी नहीं होती। अभी भी माया ने क्या जवाब
दिया, उसने नहीं सुना। उसका पूरा ध्यान माया के झुमके पर था.. एकटक!
हिलते झुमके, झूमते
लंबे बाल जिसकी एक नटखट लट बार-बार झुमके के पीछे, कान से छिटकना चाहती थी, और ये कोशिश
माया की उंगलियां नाकाम कर रही थीं। झुमके, लट, और उंगलियों का बड़ा जंच रहा था उसे।
फ़िर एक निगाह न जाने कब, गर्दन पर टिक गई।
कहते हैं कि जब हम किसी से
जुदा होने से डरते हैं तो हमें सबसे पहले पहली मुलाकात याद आती है। सच है क्या? वह
डरना नहीं चाहता, मगर पहली मुलाकात की बात याद आने लगी थी। इस गर्दन पर, झूमते बालों के नीचे बैठा ततैया.. आह! चीख रही थी
माया, उस दुकान पर साड़ियां देखते-देखते, जहां कबीर साड़ियों के ढेर से घिरी माया को
देख रहा था, एकटक।
कमज़ोरी थे उसकी ये लम्बे
झूमके, पता नहीं क्या हो जाता कबीर को किसी भी लड़की के कानों में लम्बे झूमके देख
कर, ताकता रहता उनके चेहरे को, सोचा अब चेहरा हिलेगा तो झूमके नाचेंगे और वो पागल हो
जाएगा,माया जिस भी साड़ी हो हाथ लगाती. वो उसे सोचने लगता के कैसी लगेगी वो, उस ततैये
को वो सबक़ सिखाना चाहता था, उससे पहले उसने कैसे माया को छू लिया, कहते हैं गरदन में
एक ऐसी जगह होती है जहाँ चूमने पर लड़की को सबसे ज़्यादा अच्छा लगता है, तड़प जाती
है वो, ये सोचते हुए वो माया के क़रीब पहुँचा और अपने हाथों को उसकी गरदन के क़रीब
ले गया उस ज़ालिम हो हटाने, उसका दुश्मन जो उसकी जगह ले बैठा था, एक ही झटके में उसे
ऐसा पटका मानो मार देना चाहता था...
उसकी उँगलियाँ माया की गरदन
को छूटे हुए निकल गयीं, माया सिहर गयी उस एक स्पर्श से मानो कोई रेगिस्तान में पानी
का कलश ले आया हो, वो चाहती थी वो स्पर्श फिर से महसूस करना....
तपती रेत में बारिश की बूँदों
का पड़ना...
"हर्ग़िज़ नहीं!!!......",
दांए कंधे पर बैठा फ़रिश्ता चिल्लाया, "यह ग़लत है!"
बांए कंधे पर बैठे शैतान के
होंठों पर कुटिल मुस्कान तैर रही थी- "तीर तो दोस्त चल चुका!"
ततैए की जान लेने वाले उस
शख्स की पीठ माया की तरफ़ थी। कुछ दूर उस पीठ का पीछा किया आंखों ने। फ़िर लाज से झुक
गईं आंखें, कि चोरी पकड़ी न जाए।
मुड़कर देखा नहीं था उस दिन
भी कबीर ने। जल्दी से दुकान से निकल बाज़ार की भीड़ में खो गया। कुछ दूर गया फ़िर याद
आया कि हाथ अब भी सीने पर ही था। शर्मा गया अपनी नादानी पर। और फ़िर अफ़सोस किया- इसी
बहाने बात होती, वो बहाना बेकार गया। पर फ़िर सोचा ठीक ही हुआ, कहीं चोरी पकड़ी जाती
तो?
अपनी-अपनी छत से एक-दूसरे से गप्पें लड़ा रहीं थीं दोनों, तभी माया को पीठ में चुभन सी महसूस हुई। पलटी। एक जोड़ी आंखें.. टकटकी लगाए उसे निहार रही थीं। नज़रें मिलीं मगर झुकी नहीं। "बड़ा बेशर्म है! और ख़ुबसूरत भी..."
कबीर को ख़याल ही नहीं रहा था कि माया मुड़कर उसे देख रही है वरना इतना बेशर्म नहीं था वो। उस पहली मुलाकात के बाद, वो भीड़ में खोया नहीं था। माया का इंतजार किया था भीड़ में। घर देख लिया उसका तब सांस आई। फ़िर तो आदत और हसरत दोनों उसके कदमों को माया के घर की ओर मोड़ देते, और निगाहें, टकटकी लगाए छज्जे पर। उसका मंदिर, मस्जिद, दरगाह... सब वहां, जहां दुआएं कुबूल होती थीं जब माया का दीदार हो।
अपने आप से उखड़ रही थी माया। शोक इस बात का था कि ये अहसास डरावना नहीं था, बल्कि ख़ुशनुमा बन गया था। तिलस्म! इसके पार ना कोई दुनिया, ना रिश्ते, ना डर, ना मोह...
एक दिन माया अपनी छत पर
खड़ी एक तरफ टकटकी लगाए देख रही थी, जाने कहाँ खोयी थी वो, कुछ अजीब सा लग रहा था उसे, कबीर का उसे यूँ घूरना, उसका शर्मा जाना, कहीं कुछ समझ नहीं आ रहा था, क्यों वो कबीर को भीड़ में भी ढूंढ रही थी, ऐसा क्या था उसमें,
एक साधारण सा दिखने वाला
एक इंसान उस पर कैसे काबू कर रहा था, क्यों उसके मैं एक इंतज़ार था के वो दोबारा दिखे, वो भी जल्दी,
वो भी उसे घूरे, बदला ले, ऐसे कैसे घूरा उसने, उसे कैसे हाथ लगाया , हाँ वो कीड़ा उड़ाने के लिए था पर फिर भी क्यों…
उस सिहरन को वो भूल नहीं पायी
थी अब तक जो कबीर के उसे
छूने पर हुई थी, वो पहला मर्द नहीं था जिसने उसे छुआ था उसे लेकिन
फिर भी ऐसा क्यों, मन में हज़ारों विचार, तूफानों की तरह उफान मचा रहे थे, ये इंतज़ार अब बेचैनी में
बदल रहा था, बड़ा ज़ालिम है दोबारा छत पर दिखा ही नहीं, कहीं बाहर तो नहीं चला गया, बताया क्यों नहीं….
मैं तो सब बताती उसे
के कहाँ जा रही हूँ, क्यों जा रही हूँ, क्यों बताती उसे, लगता क्या है वो मेरा, ऐसे किसी को भी बताने लग जाऊं क्या, माया अपने आप से बातें कर रही थी….
अचानक से उसे एक एहसास हुआ, वही छुअन का एहसास, किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा, वो डर गयी, पीछे मुड़ कर देखने की
इच्छा नहीं हुई, एक आवाज़ आयी,
माया , माया…
वो वही आवाज़ थी कुछ जानी
पहचानी, सुना था इसे कहीं उसने, मुड़ी तो देखा, कबीर खड़ा था…
वक़्त रुक गया था, कुछ समझ नहीं आ रहा था उसे, कबीर यहाँ कैसे आया,
दरवाजा तो बंद था, कहीं उसके पति आ गए तो।
तुम? तुम अंदर कैसे आये?, माया ने पुछा.
ये कोई तरीका है?, हो कौन तुम?
और क्यों मेरा पीछा कर
रहे हो?
मैं नहीं जानती तुम्हे, माया बोले जा रही थी
कबीर चुपचाप खड़ा रहा, एक शब्द नहीं कहा..
मेरे पति आ जाएंगे , प्लीज जाओ यहाँ से, माया ने कहा.
कोई नहीं आएगा, मैंने पता कर लिया है, तुम्हारे पति शहर से बाहर गए हैं, कल आएंगे, कबीर ने कहा.
करने क्या आये हो तुम
यहाँ, माया ने पुछा
जाऊं?, कबीर ने पुछा…
माया ने कबीर की आँखों में देखा,
एक जूनून, एक आग..
मैं वैसी लड़की नहीं हूँ जैसा
तुम सोच रहे हो, माया ने कहा.
मैं कुछ नहीं सोच रहा
माया, हम एक दुसरे को बरसों से जानते हैं, कबीर ने कहा…
मैं नहीं जानती तुम्हे, माया ने जवाब दिया…
कबीर ने फिर कुछ नहीं कहा…
ये क्या हो रहा था, माया और वो इतने सालों से एक दुसरे को जानते थे, लेकिन आज माया ऐसे क्यों कर रही थी, क्या चल रहा था उसके दिमाग में, कुछ समझ नहीं आ रहा था…
कुछ देर में सब शांत हो
गया, माया चुप हो गयी, कबीर तो पहले से ही चुप था…
कई बार ऐसा होता है
ज़िंदगी में जब दो लोग बैठे एक ही जगह पर होते हैं लेकिन बात करने का मन नहीं करता, और वो चुप्पी
अच्छी लगती है, न बात करने का प्रेशर न कुछ। बस चुप्पी…
कबीर ने माया की तरफ देखा, माया बहुत खूबसूरत लग रही थी, वो पीला कुरता, सफ़ेद लेग्गिंग, और सफ़ेद चुनरी, कानो में लम्बे
झुमके मानो उसे बुला रहे हों…
माया ने कबीर को देखा और
अचानक से उसे जकड लिया उसे, एक दम कस के, मानो कुछ मिल गया हो उसे, कबीर ने माया की आँखों में देखा और चूम लिया उसके लाल सुर्ख होठों को, और चूमता रहा जैसे बरसों की प्यास हो, होंठो का ऊपरी हिस्सा उसने अपने दांतों में जोर से दबाया, माया की आह को अनसुना करते हुए, होंठों के नीचले हिस्से पर अपना कब्ज़ा किया, कोई ज़मीन का हिस्सा हो जैसे…
दोनों की साँसे तेज़ हो
गयी थी, अब माया के जवाब देने की बारी थी, माया ने उसे धक्का दिया और टूट पड़ी उस पर, अपनी जीभ से अपने होंठों से कबीर के होंठों को काटने लगी, ये तो वो चाहती थी जबसे उसने कबीर को देखा था, एक एक करके उसके शर्ट के बटन खोले और उसे चूमने लगी..
कबीर ने उसे कस के जकड
लिया और दो टुकड़े कर दिए उसके पीले कुर्ते के, और पागलों की तरह उसे अपने हाथों में ले लिया और जी भर के प्यार किया…
माया ने भी अपने आप को
झोंक दिया उस आग में…
आग अभी सुलग रही थी, माया ने जल्दी से अपने कपडे पहने और नीचे कमरे में आ गयी।
कबीर उसके पीछे पीछे गया और उसे बाँहों में ले लिया…
ये मेरी ज़िंदगी का सबसे
खूबसूरत वक़्त था कबीर,
थैंक यू, माया ने कहा..
चुप, थैंक यू की बच्ची, कबीर ने जवाब दिया…
वैसे तुम्हे कैसे पता के
मेरे पति शहर से बाहर गए हुए हैं, माया ने पुछा…
कुछ अजीब था….
चलते हुए अब उसे थकान हो रही
थी। कब से चल ही रहा था ना! माया की ढेर सारी याद फ़िर से जी रहा था। अब दिमाग भी उफ़न
रहा था- माया! इस बार सोचा नहीं, बोला उसने। “माया”, “माया”.. कोई मंत्र हो जैसे!
आख़िर
क्या हुआ था? क्यूं परेशान थी उसकी देवी। कबीर ने कोशिश की थी कि जी ले ख़ूबसूरत माया
की ख़ूबसूरत याद के साथ। नहीं जी पाया। आज वो पूछेगा और माया को बताना होगा कि क्या
बात थी? आज सब साफ़-साफ़, जैसे उनका इश्क़! जैसे उनका जुनून! जैसे उनकी हर मुलाकात।
दिन चढ़ आया था। बादल छंट
गए थे। नुक्कड़ तक आते-आते वह थम गया।
माया!! खुले बाल चेहरा छुपा
रहे थे, हल्के गुलाबी रंग की
साड़ी, चूड़ियों से भरे हाथ, भीनी सी खुशबू, कहर!!
धीरे, बहुत हल्के से, उसके कंधे पर हाथ रखा कबीर ने। “मैंने अपने पति
को सब बता दिया कबीर! सिवाय तुम्हारे नाम के।“
कबीर चुप था.
"पूछोगे नहीं कुछ मुझसे", माया ने कहा
"नहीं" कबीर ने जवाब दिया.
"मैं जानती हूँ तुम नहीं पूछोगे कुछ और न ही
जानने की इच्छा होगी तुम्हे, क्योंकि तुम शायद आज में
जीते हो और मैं शायद कल में.
"ऐसा नहीं है माया, कभी कभी आज इतना खूबसूरत होता है के कल का सोचा ही नहीं जाता, वो आज जिसमें तुम हो, खूबसूरत, एक ऐसा एहसास जिसे शायद रिश्ते का नाम देना
गुनाह होगा, कुछ चीज़ों को नाम देने से वो खराब हो जाती हैं, ये रिश्तों के नाम ही है जो उसकी खूबसूरती काम कर देते
हैं"
रिश्तों के नाम होने से
उनकी एक सीमा बन जाती है, कुछ किरदार बन जाते हैं, जैसे की पति पत्नी, माँ बाप, भाई बहन, इनके नाम के साथ जुडी होती है एक सीमा, उस सीमा में रह कर ये अपना अपना किरदार निभाते हैं, पत्नी को घर संभालना चाहिए, पति को घर चलाना चाहिए, या दोनों को सब कुछ करना चाहिए, माँ बाप की सेवा करनी चाहिए वैगरह वैगरह, नाम देने से उनके किरदार भी बंध जाते हैं", कबीर कहता रहा.
"और मैं तुम्हे किसी नाम में नहीं बांधना चाहता
और न ही तुम चाहोगी"
"मैं समझती हूँ कबीर तुम क्या कह रहे हो, माया ने कहा.
"मैं भी किसी नाम
के सहारे नहीं चलना चाहती, बिना नाम की
चीज़ें बहुत खूबसूरत होती हैं, कोई किरदार नहीं, कोई बोझ नहीं, दिल किया मिल लिए, दिल किया दूर रह लिए, हाँ आसान नहीं होता बस.
"जब एक लड़की प्यार
करती है न कबीर, वो अपना सब कुछ
न्योछावर कर देती है, अपना वजूद, अपना तन मन सब, अपनी आत्मा, हाँ मानती हूँ के वो देर लगाती है प्यार करने
में, डरती है शायद प्यार करने
से, उसके पूरा न होने से”
“लेकिन पूरा होना
न होना प्यार थोड़ा है, प्यार तो प्यार
है, प्यार का मतलब सिर्फ पाना
नहीं है, और शायद न ही खोना, प्यार एक एहसास है जो मैंने तुमसे किया है, तो क्या हो गया मुझे वो शादी के बाद हुआ, इसका ये मतलब नहीं है के मैं अपने पति से प्यार
नहीं करती, बहुत करती हूँ, शायद प्यार के अलग अलग चेहरे होते हैं, उनसे चेहरे से और तुमसे दुसरे चेहरे से"
“और अच्छा है मान
लेना के प्यार है, दुनिया में कितने
लोग तो ये मानते ही नहीं हैं के उन्हें प्यार
है, वो प्यार को इन रिश्तों
के नाम के बोझ तले दबा देते हैं एक जिम्मेदारी की तरह, प्यार जिम्मेदारी है? शायद नहीं, मीरा ने भी किया था कृष्ण से प्यार बेइंतेहा, जिसकी लोग मिसाल देते हैं, कुछ गलत था उस प्यार में?, नहीं, कुछ गलत नहीं था”
“राधा ने नहीं
किया प्यार कृष्ण से? किया ना, अरे आज मंदिरों में राधा कृष्ण की मूर्ती साथ
होती हैं लोग एक साथ नाम लेते हैं, राधे कृष्ण, जानते हो इसका मतलब क्या हैं? राधे- राह दे कृष्ण, मुझे दिशा दो कृष्ण.
“पति को बताना सही
था, कुछ गलत नहीं, शायद मुझे तोलना ही नहीं है किसी चीज़ को सही
गलत के तराज़ू में, बहुत आसान होता है तोलना, तुम सही मैं गलत, मैं सही तुम गलत , इतना आसान बना देते हैं ये सही गलत के तराज़ू, जैसे की बट जाता है सब सही गलत में”
“कुछ देर के लिए
जा रही हूँ कबीर मेरी दूसरी दुनिया में, जिसे इस वक़्त
मेरी ज्यादा ज़रुरत है"
"और मुझे ज़रुरत नहीं
है?", कबीर ने पूछा
"है और मुझे
तुम्हारी, लेकिन कुछ वक़्त के लिए
मुझे जाना होगा, आउंगी
वापिस", माया ने कहा।
"मैं ज़रूर
आउंगी", ये कहते हुए माया
ने अपने कदम पीछे बढ़ाये और चल दी.
कबीर उसे टकटकी लगाए देखता
रहा….
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